जीवनी

आदि गुरु शंकराचार्य का जीवन परिचय

Adi Guru Shankaracharya Biography

भारत की अध्यात्मिक परंपरा में आदि गुरु शंकराचार्य का नाम अत्यंत श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है। वे भारतीय दर्शन के महानतम दार्शनिक, अद्वैत वेदांत के पुनर्स्थापक, प्रखर संन्यासी और सर्वधर्म समभाव के प्रतीक माने जाते हैं। उन्होंने अपने अल्पायु जीवन में वह कार्य कर दिखाया जो सदियों तक असंभव माना गया—वेदांत की मूल भावना को पुनर्जीवित करना, सनातन धर्म की रक्षा करना और पूरे भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोना। इस ब्लॉग में हम आदि गुरु शंकराचार्य के जीवन परिचय, दर्शन, यात्राओं, रचनाओं और उनके अमर योगदान को विस्तार से समझेंगे।

आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म एवं प्रारंभिक जीवन

आदि शंकराचार्य का जन्म केरल राज्य के कालड़ी नामक स्थान पर 788 ईस्वी (कुछ ग्रंथों में 509 ई.पू.) में हुआ माना जाता है। उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्यम्बा था। काफी वर्षों तक संतान न होने पर माता-पिता ने भगवान शिव की आराधना की। कहा जाता है कि शिव ने उनके पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया, और इसी कारण उनका नाम “शंकर” रखा गया।

बचपन से ही शंकर अत्यंत प्रतिभाशाली थे। आठ वर्ष की आयु तक उन्होंने वेद, उपनिषद, व्याकरण और दर्शन के सभी प्रमुख विषयों का गहरा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उनकी स्मरण शक्ति इतनी अद्वितीय थी कि एक बार पढ़ी गई चीज़ तुरंत कंठस्थ हो जाती थी।

संन्यास ग्रहण एवं गुरु गोविंद भगवत्पाद से शिक्षा

शंकराचार्य का मन बचपन से ही अध्यात्म में लगा हुआ था। मात्र आठ वर्ष की आयु में उन्होंने संन्यास लेने का दृढ़ निश्चय कर लिया, हालांकि माता आर्यम्बा संन्यास के लिए तैयार नहीं थीं। किंवदंती है कि एक बार नदी में नहाते समय एक मगरमच्छ ने उन्हें पकड़ लिया। शंकर ने माता से संन्यास की अनुमति मांगी और कहा कि अगर अनुमति मिल जाए तो वे बच जाएंगे। माता ने सहमति दी और शंकर को जीवनदान मिला।

संन्यास लेने के बाद वे अपने गुरु गोविंद भगवत्पाद के पास पहुंचे, जिन्होंने उन्हें अद्वैत वेदांत का गूढ़ ज्ञान प्रदान किया। यही वह चरण था जिसने शंकराचार्य को भारतीय दर्शन का महान शिखर बनाया।

अद्वैत वेदांत का सिद्धांत

शंकराचार्य ने विश्व को अद्वैत वेदांत का संदेश दिया। अद्वैत का अर्थ है—“एक ही सत्य है, वही ब्रह्म है, शेष सब माया है।”

उनके दर्शन के मुख्य सिद्धांत:

  • ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है।
  • जगत माया का रूप है।
  • जीव और ब्रह्म एक ही हैं; भेद केवल अज्ञान के कारण दिखाई देता है।
  • ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है, कर्म और भक्ति उसके सहायक साधन।

अद्वैत वेदांत ने भारतीय समाज में सोच की एक नई धारा प्रवाहित की, जिसने आगे चलकर अनेक संप्रदायों, संतों और विचार धाराओं को प्रभावित किया।

भारत का भ्रमण और चार मठों की स्थापना

शंकराचार्य ने लगभग 16 वर्ष की आयु से ही अखंड भारत की यात्रा प्रारंभ की। वे उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम—सब दिशाओं में भ्रमण करते हुए विभिन्न मठों, आश्रमों और विद्वानों से संवाद करते रहे।
उन्होंने धर्म और समाज को एक सूत्र में बांधने के लिए चार प्रमुख मठ स्थापित किए:

ज्योतिर्मठ (उत्तर) – बदरीनाथ, उत्तराखंड

ज्योतिर्मठ, जिसे उत्तराम्नाय मठ भी कहा जाता है, आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार प्रमुख मठों में से एक है। यह उत्तराखंड के बदरीनाथ मार्ग पर स्थित है और अद्वैत वेदांत परंपरा का प्रमुख केंद्र माना जाता है। यहाँ भगवान नारायण की पूजा होती है तथा तुंगनाथ-बदरीनाथ क्षेत्र की आध्यात्मिक गतिविधियों का संचालन यहीं से होता है। मठ शैव-वैष्णव समन्वय का प्रतीक है और वेद, उपनिषद तथा शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन का महत्वपूर्ण संस्थान है।

शारदामठ (पश्चिम) – द्वारका, गुजरात

शारदामठ, जिसे पश्चिमाम्नाय मठ कहा जाता है, आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार प्रमुख मठों में से एक है और गुजरात के द्वारका में स्थित है। यह मठ अद्वैत वेदांत परंपरा का महत्वपूर्ण केंद्र है तथा यहाँ देवी शारदा को ज्ञान की अधिष्ठात्री के रूप में पूजित किया जाता है। मठ वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन का प्रमुख संस्थान है। द्वारका शारदापीठ देश-विदेश के साधकों को आध्यात्मिक, धार्मिक और दार्शनिक मार्गदर्शन प्रदान करता है।

गोवर्धनपीठ (पूर्व) – पुरी

गोवर्धनपीठ, जिसे पूर्वाम्नाय मठ कहा जाता है, आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार प्रमुख मठों में से एक है और ओडिशा के पुरी में जगन्नाथ धाम के पास स्थित है। यह अद्वैत वेदांत दर्शन का प्रमुख केंद्र है और यहाँ विशेष रूप से ऋग्वेद का अध्ययन-अध्यापन होता है। मठ का उद्देश्य ज्ञान, भक्ति और वैराग्य के मार्ग का प्रसार करना है। गोवर्धनपीठ देश-विदेश के साधकों को आध्यात्मिक शिक्षा, दर्शन-चर्चा और वैदिक परंपरा की सीख प्रदान करता है।

शृंगेरी मठ (दक्षिण) – कर्नाटक

शृंगेरी मठ, जिसे दक्षिणाम्नाय मठ कहा जाता है, आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित प्रथम मठ माना जाता है। यह कर्नाटक के चिकमगलूर ज़िले में तुंगा नदी के तट पर स्थित है। मठ अद्वैत वेदांत दर्शन का प्रमुख केंद्र है और यहाँ यजुर्वेद का अध्ययन विशेष रूप से होता है। शृंगेरी पीठ शिक्षा, संस्कृत अध्ययन, वेद-शास्त्र परंपरा और गुरुकुल प्रणाली के संरक्षण में अग्रणी है। मठ का वातावरण साधकों को आध्यात्मिक उन्नति, चिंतन और साधना हेतु प्रेरित करता है।

इन मठों के माध्यम से शंकराचार्य ने शास्त्रों की शिक्षाओं का प्रसार किया और पूरे राष्ट्र को सांस्कृतिक एकता का संदेश दिया।

धर्म की पुनर्स्थापना एवं कुटिल मतों का खंडन

शंकराचार्य उस समय जन्मे जब भारत में अनेक कुटिल मत, अंधविश्वास और विवादित परंपराएँ फैल रही थीं। उन्होंने तर्क, शास्त्र और वाद-विवाद के आधार पर कई विद्वानों को पराजित किया। उनका वाद-विवाद प्रसिद्ध मंडन मिश्र के साथ हुआ, जिसमें शंकराचार्य विजयी हुए और मंडन मिश्र भी उनके शिष्य बन गए।

उनके प्रयासों से सनातन धर्म पुनः प्रतिष्ठित हुआ और समाज में विवेक, ज्ञान तथा सरलता का समावेश हुआ।

रचनाएँ और ग्रंथ

शंकराचार्य ने अपने अल्पायु जीवन में 200 से अधिक ग्रंथों की रचना की। इनमें से प्रमुख हैं—

  • ब्रह्मसूत्र भाष्य
  • भगवद गीता भाष्य
  • उपनिषद भाष्य
  • विवेकचूडामणि
  • सौंदर्य लहरी
  • भज गोविंदम्
  • निर्वाण षटकम्

ये रचनाएँ आज भी आध्यात्मिक seekers के लिए मार्गदर्शक मानी जाती हैं।

आदि गुरु शंकराचार्य का महापरिनिर्वाण

इतना विशाल कार्य करने के बाद भी शंकराचार्य की आयु मात्र 32 वर्ष थी। माना जाता है कि उन्होंने केदारनाथ में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। उनका जीवन भले ही छोटा था, किंतु उनका प्रभाव अनंत और शाश्वत है।

निष्कर्ष

आदि गुरु शंकराचार्य केवल एक दार्शनिक नहीं थे, बल्कि वे भारत की आध्यात्मिक चेतना के पुनरुत्थान के आधार स्तंभ थे। अद्वैत वेदांत का उनका संदेश आज भी अत्यंत प्रासंगिक है—सत्य एक है, आत्मा और ब्रह्म एक हैं, और ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है।

उनका जीवन हमें सत्य, विवेक, साहस और समर्पण का मार्ग दिखाता है। इसीलिए वे सदैव भारतीय संस्कृति के अमर दीपस्तंभ के रूप में पूजे जाते हैं।

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